Monday, July 25, 2011

आँखों में छुपे समंदर के पार...



बालकनी से देखती काले सावन के बादल
समेट लेती है वह जूड़े में अपनी फ़ैली लंबी परछाई
जिसके घने काले आगोश में , शाम खामोश प्यार की गवाही देती थी 
घूमने लगती है यूँ ही दरवाजे को खुला रख
इधर-उधर कमरे से चौके तक
कभी सोफे का सीधा करती  
कभी एक बार फिर से दूध गर्म करती ..
बिखरे घर को समेटती,
बिस्तर की सिलवटों को मिटाती ,
व्यस्त होने का दिखावा करती,
हँसती है फीकी हँसी... आँखों में छुपे समंदर के पार...  

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